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केवल जले कच्चे घर दिख रहे हैं... ....एक कतार में । यह है उन चमारों का कुनबा जो तालाब के आस-पास ग्राम-समाज की जमीन पर छोटा-छोटा घर बनाकर रहने लगे थे। यहाँ छोपड़ी बनाने का कतई मतलब नहीं था कि वे बेघर थे। उन सभी के अपने घर हैं, पैतृक- पुरखों से मिले हुए... कुछ के छोटे और कुछ के बड़े। तो क्या कारण आन पड़ा कि वे तालाब के पास की जमीन कब्जा करके अपनी झोपड़ियाँ डाल दें? यह इनमें बढ़ती जागरुकता का संकेत है, राजनीतिक कुस्वार्थ से प्रेरित स्पर्धा की भावना है, या नेतागीरी की हवा लग गयी है इन्हें । यह विचार आजकल गाँव के बुद्धिजीवियों के बीच चर्चा का खास विषय बना हुआ है।
आइए तफसील से विचार करें कि यह नया मसला क्या है? अभी हफ्ते भर तो सब ठीक- ठाक चल रहा था. अचानक क्या हो गया? पूरा गाँव मेल -मुहब्बत से तो रहता था. माना कि इस गाँव में जाति का भेद है, बड़े छोटे का विचार है, ऊँच नीच की सोच भी है लेकिन ऐसी हालत तो कभी न हुई थी गाँव की. इस घटना से पूरा गाँव अशान्त है. खैर ताजा मसला तो चुनाव का है. पूरे गाँव में यह बात फैल गयी थी कि इस बार छोटी जाति को लोग कमर कसकर तैयार हैं कि वे वोट डालने जरूर जायेंगे. सवर्णों की मनमानी बहुत चली. एक ही आदमी कई लोगों का वोट डाल आता था. छोटी जाति के लोगों का नाम तो वोटरलिस्ट में जरूर रहता था लेकिन जब कोई हरिजन वोटर वोट देने जाता था तो पता चलता था कि उसका वोट पहले ही पड़ चुका है. हारकर वह लौट जाता था. करें भी तो क्या? गाँव में ठाकुरों का जो वर्चस्व जो था।
इस बार यह मुरैना गाँव शासन कि ओर से अतिसंवेदनशील घोषित कर दिया गया था। इसलिए पुलिस की व्यवस्था भी चाक-चौबंद थी। हाँ एक बात और सुनने में आयी कि गाँव के कुछ सज्जन पुरुषों के पास थाने से बुलावा भी आया है, आखिर उन्हें खतरनाकों की लिस्ट में शामिल जो कर लिया गया था। अब आप सोच रहे होँगे कि सज्जन लोग पुलिस की नजर मेँ खतरनाक कैसे बन गये, तो बात ऐसी है न कि गाँव के कुछ दबंग लोगों की पुलिस थाने के कुछ पुलिस कंपनी से खूब छनती है, तो जब पुलिस को गाँव के विषय में जानकारी लेनी होती है तो बस ऐसे लोगों के जरिए मिली जानकारी ही थाने में पहुँच जाती है। अब जब चुनाव का समय आया तो थाने में उन सभी गांवों की सूची भेजी गयी जो संवेदनशील एवँ अतिसंवेदनशील बताये गये थे। अब पुलिस को काम यह करना था कि ऐसे गांवों में जाकर ऐसे लोगों की सूची तैयार करे जिनके पास किसी प्रकार के हथियार हों, अथवा जो गाँव की शांति व सुरक्षा के लिए खतरा बन सकते हों। फिर क्या कुछ पुलिस वाले थाने से चले और गाँव के पहिले पड़ने वाली बाजार में ही गाँव के कुछ लोग मिल गये। ये पुलिस वालों के नजदीक थे।
बस फिर क्या? हो गयी बैठक, चाय समोसे को दौर और हँसी मजाक की फुलझड़ियाँ। इन्हीं महान लोगों ने गाँव के लिए संकटप्रद लोगों की सूची बना दी जिसमें सज्जन पुरुषों के नाम शामिल थे। इन लोगों को थाने में आकर अपनी जमानत करनी पड़ेगी और पुलिस को क्या ? गाँव में जाने से छुट्टी, दोस्ती भी निभ गयी, समय भी तो बचा। इसी प्रकार से हर बार होता है।
खैर वोटिंग शुरू हुई, जमकर वोटिंग हुई। लेकिन शाम तक सब सकुशल न चल सका। दलित वर्गों का आरोप था कि उन्हें वोट नहीं दिया जा रहा है। उनका वोट कोई और ही डालकर चला गया है। हो हल्ला के बीच चुनाव तो समाप्त हो गया, लेकिन गाँव के कुछ स्वार्थी तत्वों ने दबी चिनगारी को भड़काने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। ऐसा सुनने में आया कि कुछ ब्राह्मणों ने दलितों को उकसा दिया है, और अब सभी बदला लेने की फिराक में हैं ।
शाम साढ़े आठ बजे के करीब खबर मिलती है कि गाँव के अंकित सिंह पर लाठी से हमला किया है। यह कब कैसे हुआ? ठाकुर टोले में हलचल मच गयी। आनन-फानन में महेंद्र सिंह के यहाँ एक बैठक बुलायी गयी जिसमें गाँव के प्रमुख लोग उपस्थित हुए, जिसमें खासकर ठाकुर टोले के ही लोग थे। जग्गी डाक्टर, सोनू सिंह, जगेंद्र सिंह, माता प्रसाद सिंह, रघुराज सिंह, चौधराइन काकी, श्यामा बुआ जैसे लोग खास थे। बैठक में एक साथ कई बातें उछाली जाने लगीं । पन्द्रह साल का कल्लू बुलाया गया जिसने इस हमले की पहली सूचना दी थी। कल्लू हाँफता-हाँफता आया।
"कबे कलुआ! का देखे तैं?" जग्गी डाक्टर ने कल्लू से पूछा।
"अरे डागडर आराम से पूछौ!" श्यामा बुआ बोलीं।
"हम खेते से लौटत रहे, तब्बै आवाज सुने कि 'पकड़ साले कऽऽ बचै न पावइ'। हम ता सरपतै कऽऽ पाछे लुकाइ गये, औ देखा कि रमुआ का लड़िका एक अद्धा लइके दौड़ा औ खींचि के मारेस, अंकित चाचा साइकिल से गिरि गयेन, सम्पतवा का दादा रोकेस कि जाइ दे रे, जाइ दे रे! आपन ठाकुर साहेब अहेन, लेकिन सम्पतवा एक लाठी खींचि के मारेस औ चार-पाँच चमार और आइ गये। रोंघइया आइ के समझाएस तब सब चले गए।" कल्लू हाँफ रहा था।
ठाकुरों का तो मानों खून खौल रहा था।
"चमारों की इतनी हिम्मत! कल तक जिन स्सालों की आँख उठाकर चलने की हिम्मत नहीं थी, वो आज ऐसी हरकत कर रहे हैं । देखो! मास्टर! तुम बहुत कहत रहौ न कि सब का पढ़ै का चाही, तबै बदलाव आये तो देखो आइ गा बदलाव, भुगतौ।" जग्गी डाक्टर आवेश में बोल रहे थे।
"ऐसे भले तो ऊ जिंमींदारियै ठीक रही। सब कनटरौल में तो रहैं। केहूकऽऽ मजाल रहै कि आँख उठा के देखि लेइँ। जब से लोकतंतर आइ बा तब्बै तब आग मूतै लागेन। भाड़ मा जाइ अइसन सिसटम।" श्यामा बुआ बात को कहाँ से कहाँ लेकर चली गयीं ।
रामकृपाल मास्टर अभी तक जग्गी डाक्टर की बात पर ही सोच रहे थे।
'देखो! जग नरायन! शिक्षा यह नहीं सिखाती है जो हो रहा है। यह तो आजकल की गंदी राजनीति का असर है जो दलितों को भढ़का रही है। शिक्षा तो जरूरी है ही। विकास तो तभी होगा" रामकृपाल मास्टर ने अपनी पुरानी आदत के मुताबिक एक छोटा वक्तव्य दे ही दिया।
तभी नयी उमर के रमेश सिंह ने अपना भी गुस्सा जाहिर किया- "मास्टर चाचा चाहे जो कहें, इन सालों को तो सजा देना ही पड़ेगा।"
तभी शंकरदीन बोले- "देखो रमेश! बड़ी-बड़ी बात न करौ! अबै तो बहुत बोलत हो, कल से फिर उनहीं के पायें परिहो जब खेत में काम करैके मनई ढ़ूँढ़ै का होई। तुम्हार तो अबै गन्ना का सारा खैत खड़ा है।"
तभी जगेंद्र सिंह की आवाज गरजी-"बन्द करो बकवास ! अब ये सोचो कि कैसे किया जाय? गाँव से बाहर तो निकलना ही होगा। क्या इन चमारों के कारण गाँव से बाहर न जायें? बाजार-हाट तो जाना ही है।" सभी शान्त थे कि कुछ आवाजें फिर उठीं कि रामसिंह के घर से इस बैठक में कोई नहीं आया। आएगा क्यों? चमारों से छनती जो खूब है।
ऐसे कुछ लोग तो हर जगह होते हैं जो अपने निजी स्वार्थ के लिए अपनों का साथ छोड़ देते हैं । ऐसे ही लोग इस गाँव में भी हैं । लगभग डेढ़ घण्टे तक चली इस परिचर्चा का कुछ खास परिणाम नहीं निकला। बस टीका-टिप्पणी ही ज्यादा चली। अन्त में यह बिचार हुआ कि शान्त बैठा जाय और देखा जाय कि बाहर क्या हो रहा है? गाँव का निकास दक्षिण दिशा में था और गाँव के बाहर दक्षिण में एक तालाब था, यह तालाब इस गाँव के लिए कई मायने में महत्वपूर्ण था। वर्षा के समय इसमें इतना पानी इकट्ठा हो जाता था कि आस-पास के कई खेतों की सिंचाई इसी तालाब से हो जाया करती थी। सिंचाई के मौसम में कई दबिले चलते देखे जा सकते थे। दो आदमी एक या दो दबिले ले लेते थे जिसमें दोनों ओर दो-दो रस्सियाँ बँधी होती थीं, दोनों जन तालाब से नाली के जरिये गड्ढे में एकत्र हो रहे पानी को झटके से खेत में उलीचते थे। हालाँकि तालाब का उथलापन बढ़ने से और ट्यूबेल जैसे सिंचाई के साधनों के बढ़ने से सिंचाई की यह परम्परा खतरे में पड़ती जा रही थी। दूसरा उपयोग यह था कि दिशा-फराकत के लिए जाने वालों के लिए तालाब का पानी सहज ही उपलब्ध था। तीसरा उपयोग यह था कि तालाब के पानी में गायें-भैंसे नहाकर अपनी देह साफ करती थीं, खासकर गर्मी मेँ तो गायों-भैंसों के लिए यह एक शीतलक गृह था और चरवाहे निश्चिंत होकर गुल्ली-डण्डा का खेल या तास का खेल आसानी से खेल सकते थे। चौथा उपयोग यह था कि तालाब के आस- पास के बच्चों के लिए यही एक स्वीमिंग पूल था, चरवाहे तो भैंस-गाय रगड़कर धोने के बहाने आनन्द लेते ही थे। पाँचवाँ उपयोग यह था कि गाँव भर की शादियों के कुछ अनुष्ठान इसी तालाब पर सम्पन्न होते थे। छठाँ उपयोग यह था कि कच्चे घरों में पुताई के लिए उपयोग में आने वाली पिरोड़ भी इसी तालाब से जाती थी। सातवाँ उपयोग तो रह ही गया कि गाँव के दूध बेचने वाले दूधियों को गाँव के बाहर दूध ले जाते हुए दूध में पानी मिलाने के लिए यह तालाब अति सुविधाजनक था। एक बार मुन्नू सिंह गाँव के नजदीक बाजार में चाय की दूकान पर दूध देने गये, और जैसे ही उसके भगोने में दूध उड़ेला, एक प्यारी मछली भी साथ में गिरी। चाय की दूकान पर एक पुलिस वाला चाय पी रहा था। मुन्नू सिंह को काटो तो खून नहीं । जुबान से एक शब्द न निकला और डरे-सहमे मुन्नू सिंह चुपके से अपनी सायकिल उठाकर वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गये। बस तब ही यह बात पकड़ में आयी थी।
इसी तालाब में किसान सरकण्डे भिगोते थे जिसके नरम होने पर रस्सी बटते थे, अरहर के रहठे भिगोते थे जो पानी में रात भर भीगकर नरम होने से फसलों के बोझे बाँधने में उपयोगी होते थे, इन भीगे रहठों को उमेंठ कर छान-छप्पर बाँधने में उपयोग करते थे। कुल मिलाकर यह तालाब बहु उपयोगी था। हाँ एक घटना कुछ तकलीफ देह जरूर थी, कि सुरसतिया अपने घर वालों से रूठकर इसी तालाब में डूब मरी थी। कुछ लोग कहते थे कि सुरसतिया चुड़ैल बन गयी है और रात में तालाब के आस-पास कुछ लोगों ने उसे देखा भी है, मगर ज्यादातर लोग तो इसे बकवास मानते थे। बसंत पंचमी के दिन लाल रंग की गोल-गोल धारी से रंगे डंडे लेकर गाँव के बच्चे इसी तालाब के पानी में कपड़े की बनी गुड़िया पीटते थे तब उन्हें इस बात की बिलकुल फिक्र नहीं होती थी कि कभी इसी तालाब से सुरसतिया की लाश निकाली गयी थी। छोटी-छोटी झींगा और मेंगुर मछलियोँ की तलाश में काटों में केंचुए फँसाकर इस तालाब की मछलियाँ मारते हुय बालकों को भी कभी सुरसतिया सताने नहीं आयी। खैर अब उस तालाब का नाम मात्र ही बचा है। गाँव के ही एक ठाकुर साहब हैं जो उस तालाब को खेत का शक्ल देने की फिराक में हैं । सुना है कि यह तालाब उनकी पैतृक जमीन का हिस्सा है। तालाब की आस पास की जमीन को तालाब से जोड़कर एक बड़े खेत का शक्ल देने की कोशिश में हर साल वे ठाकुर साहब रन्नू सिंह तालाब का आकार छोटा करते जा रहे हैं । आजकल तालाब और उसके आस पास की जमीन पर रन्नू सिंह कुछ न कुछ बोते रहते हैं, धान तो हर साल बोया ही जाता है।वैसे तालाब के आस पास कटहल आम जामुन के कई पेड़ रन्नू सिंह और उनके घराने के हिस्से में आते हैं तो हो सकता है कि तालाब की जमीन कभी उनके पुरखों की रही हो। गाँव के कुछ हरिजनों को नये प्रधान ने तालाब के आस-पास की ग्राम समाज के अन्तर्गत अधिग्रहीत जमीन में पट्टा दे दिया है। और पट्टे मिलने के बाद ये लोग अपने घर को किसी अन्य भाई या सदस्य के सुपुर्द करके यहाँ आ गये और अपने छप्पर डालकर रहने लगे। ये लोग दिनभर मजदूरी करके शाम को यहीं आते हैं। धीरे-धीरे इन आठ-दस छप्परों में समृद्धि पसरने लगी है। राम चरन ने जिसे रामचन्ना पुकारते हैं, अपने छप्पर में किराने की दूकान लगा रखी है सौदा-सुलुफ उसकी माई देती है और रामचरन रिक्शा चलाता है। जरूरत पड़ने पर गाँव के अन्दर से लोग यहीं आते हैं बीड़ी-सोपाड़ी-सुरती चीनी निमक जैसी चीजें लेने के लिए। सरबजीत की पंक्चर की दूकान खुल गयी है जहाँ सायकिल का पंक्चर बनता है और सायकिल में हवा भरी जाती है। शंकर जिसे लोग बाग शंकारे कहते हैं बसूला छेनी और कन्नी लेकर बढ़ईगीरी करता है और जरूरत पड़ने पर दीवाल भी जोड़ता है, रामकेरपाल सिंह का पूरा घर पलस्तर किया है शंकारे ने। बोधई अब रामबोध हो गया है और रामसहाय पाँड़े की जीप चलाता है, सुना है कि बोधई अब अपनी जीप लेने की भी सोच रहा है। जो बचे हैं उन्होँने एक बैण्डपार्टी बना ली है जो शादी व्याह में बाजा बजाती है और नाच दिखाती है। हाँ रामधन नेतागीरी करने लगा है। रामधन ने साईं दाता की कण्ठी ले ली है और अब लोग बाग उसे राम धन साईं या केवल साईं कहते हैं । जवाब में राम भी सत्त साईं- सत्त साईं कहता है। उसने सन्त कबीर का एक भजन कण्ठस्थ किया हुआ है भँवरवा के तोहरा सँग जाई। आप जब कहें तो सुना देगा। लेकिन एक लत है उसमें गाँजे की। रामधन के छप्पर में रोज सबेरे और शाम में मीटिंग होती है गँजेड़ियों की। ठकुरइया, बभनौटी, पड़ान, मिसरान, यादव का पुरवा, तिन्नीपुर के खास गाँजे के शौकीन जिसमें ज्यादातर नौजवान है रोज ही रामधन की मड़इया में दरबार लगाते हैँ। बाबा भोलेनाथ का प्रसाद कौन दुत्कारे? कैसे मना करे रामधन? पहिले तो वह गोस्त और मछली भी खाता था। सुना है कि ठकुरइया और बभनौटी के छोरे रामधन की थाली पवित्र कर चुके हैं गोस्त खाकर, पर अब रामधन भगत हो गया है साईं दाता की माला लेकर। गाँजा-भाँग तो शँकर भगवान का प्रसाद हैं ई ऐब थोड़े ही आते हैं । हाँ उसकी बैठकी में आने वालों में से कुछ छोकरे उसकी घरवाली से आँख मटकाने के चक्कर में जरूर रहते हैं । अलबत्ता कभी ध्यान नहीँ दिया रामधन ने इन बातों पर। वैसे चर्चा है कि किसी ठाकुर का एक लौंडा उठता बैठता है उसकी घर वाली के साथ पर सबूत किसी के पास नहीं है इसलिए यह बात भी कभी कभार ही चर्चा में आती है। हाँ एक बार रामधन की साली आयी थी यही कोई बारह-तेरह की होगी, इन्नर सिंह (इन्द्र नारायण सिंह) के लड़के जोधन सिंह ने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया था और उसकी दोनों हथेलियों को अपनी दोनों हथेलियों से दीवाल के सहारे सटाकर अपनी नाक उसकी नाक से सटा ली और जैसे ही उसके होंठ से अपने होंठ मिलाने वाला था कि किसी की आहट सुनकर छोड़ दिया था। रामधन की साली के लिए यह घटना बिलकुल नयी थी इसलिए वह कुछ समझ ही न पायी थी कि क्या हुआ है?और उसने किसी को कुछ बताया भी नहीं । अपने दोस्त बिन्नी सिंह से जोधन ने इस घटना का जिक्र जरूर किया था और कभी कभार चटकारे लेकर दोनों यह प्रसंग अनायास ही उठा दिया करते थे। खैर ऐसे जगहों पर कुछ न कुछ चर्चाऐं होना तो आम बात ही है। ठाकुर बाम्भन के बिगड़े बेटे दलितों हरिजनों की बेटियों और औरतों को छेड़ना अपनी शान समझते थे। रामधन की गाँजा कम्पनी बदस्तूर जारी रही। हाँ इस बीच उसे राजनीति का चस्का कुछ ज्यादा ही लग गया है।
कुछ दिनों पहिले जिले में दलितों की एक राज्यस्तरीय रैली थी तो रामधन अपनी जीप में अपने गाँव के हरिजन भाइयों को लेकर गया था दलित रैली के समर्थन में । वहाँ एक बड़े दलित नेता का आगमन हुआ था श्यामल बिंद जी का। रामधन के साथियों ने दलितों के पक्ष में जमकर नारे लगाऐ, और दलितों के मसीहा डा भीमराव अम्बेडकर की जय जयकार भी खूब लगाई। रैली से बाबा साहब अम्बेडकर की बड़ी फोटो भी लाया था रामधन, अपनी मड़इया में लगाने के लिए। शाम को जब रामधन के गाँजा कम्पनी के नियमित मित्र उसके इस आवास पर आये तो उन्हें बाबा अम्बेडकर की तस्वीर दीवाल पर लगी दिखी। शनि सिंह ने गाँजे के नशे में कहा-" ई कौनो का फोटो है चस्मा वाला? अरे ई अम्बेडकरवा का फोटो कहाँ से लाए बे?"
तब गुस्से से तमतमा गया रामधन-"देखौ शन्नी भैया! ई हमार मसीहा हैं बाबा अम्बेडकर। आपन जुबान सँभालिके बात केहा, नाहीं ताऽऽ ठीक न होई।"
शनि सिंह ने उठा ली चप्पल-"देख रमधन्ना! अपने औकात में रह नाहिं ताऽऽ इहीं तालाब में उठाइ के फेंकि देबइ स्साले! देखा साले का ई हमार बसावा मनई अब नेताई देखावइ चला बा। साले ई रामचन्द्र की भूमि है। अंबेडकरा का नाम ना चली इहाँ।" गुस्से से ठाकुर शनी सिंह के मुँह से थूक के फुहारे छूटने लगे और गाँजे गा नशा भी छूमंतर हो गया।
सम्भल तिवारी बोले- "देखौ बाबू शनि सिंह! पढ़े लिखे हो तब ऐसी बात करते हो। तुमको पता नहीं कि डा अम्बेडकर अपने देश के संविधान निर्माता हैं और भारत रत्न भी। उनका बचपन बड़ी संघर्ष में बीता था, जातिवाद के शिकार हुए थे बेचारे। किसी तरह पढ़ लिखकर बैरिस्टर बने और फिर आजादी की लड़ाई के दौरान उन्होंने दलितों की दशा सुधारने और शिक्षा के प्रसार करने के लिए अपना काफी योगदान किया। अगर उनका सम्मान हो रहा है तो गलत क्या है? भगवान राम भी तो शबरी के जूठे बेर खाके उसको मान दिये थे। दलितों का उत्थान तो रामचंद्र भी तो चाहते थे। चलो छोड़ो बखेड़ा। यार चिलम ठंडी हुई जा रही है। चलो एक बार बाबा भोलेनाथ का प्रसाद लेकर अपने-अपने घर चला जाय। नहीं तो देर हो जायेगी।"
शनी सिंह अब शान्त लग रहे थे पर गुस्सा अब भी कायम था। रामधन संभल तिवारी से खुश थे। बाकी लोग इस झंझट में नहीं पड़ना चाहते थे। उन्हें तो यह डर था कि कहीं इनके झगड़े में हमारी बैठकी न बंद हो जाय, ऐसा अड्डा कहा मिलेगा?
तब शनी सिंह चुप नहीं रह पाया-"जब तक तेवारी ज इसे लोग रहेंगे, चमारन का मन ता बढ़बै करी। तू लोगन बइठा, हम चलीथऽऽ।"
शनी को किसी ने रोका नहीं, लेकिन धीरे-धीरे सभी उठ गये। रामधन की घरवाली समझ भी न पायी थी कि बात क्या है? हाँ इस चर्चा के दौरान श्यामू पाँड़े का लड़का रामधन की घरवाली से मक्के की रोटी और चने का साग लेकर चुपके से खा चुका था और अब डकार ले चुका था मानों कि इस चर्चा से उसे कुछ लेना-देना ही न हो।
रामधन के लक्षण अब काफी कुछ बदल गये थे। वह अब अपने कुनबों को एक करने लगा था, वह इसे जागरुकता कहता था और गाँव वाले कहते थे कि भड़का रहा है लोगों को। अब अम्बेडकर जी की फोटो तालाब के समीप वाली झोपड़ियों में देखी जा सकती थी और कुछ नीले रंग के झण्डे भी दिख रहे थे जिस पर लिखा था जय भीम जय भारत। रामधानी की राजनीति का असर गाँव के बाकी हरिजन परिवारों में भी देखने को मिला। अब कई छोटे बच्चे स्कूल जाने लगे, रामधन के साथ बैठने वालों ने अपने बच्चों को नजदीक के एक कॉन्वेंट स्कूल में भेजने लगे कि उनके बच्चे पढ़ लिखकर अफसर बनें । रामधन ने दलितोँ की राजनीतिक रैलियों में जाना शुरू कर दिया था। वहाँ कुछ राजनेताओं की सोहबत पड़ गयी, जिनके साथ रामधन को उनके घर जाने का मौका मिलता था। वहाँ बच्चों को टाई और स्कूली ड्रेस में स्कूल जाते देखकर ललचा जाता था। अब उसके संगी साथ अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं । यह अलग बात है कि बहुतों की अभी नाक चूती रहती है जिसे वे साफ करना भी नहीं जानते। रामधन का एक छोटा बेटा है आठ महीने का, रामधन इन्तजार कर रहा है कि कब वह बड़ा हो और वह भी स्कूल पढ़ने जाय। खुद तो पढ़ पाया नहीं नहीं में जो फेल हुआ जो एक बार तो पढ़ाई ही छोड़ दिया।
अब तो वह राजनीति करेगा । यह तो लोकतंत्र है यहाँ तो अगर राजनीति करना है तो इतनी पढ़ाई बहुत है। राजधानी में जाकर देख आया है रामधन, पांचवीं फैल और आठवीं फैल भी तो राजनीति कर रहे हैं । ठीक ही तो है ठाकुर ब्राह्मण के लड़िके चाहे जितना पढ़ लें लेकिन इहाँ तो सब बराबर हैं । अगर गोटी लह गयी तो दलित और पिछड़ी जाति के लोग कुर्सी तोड़ेंगे और मंत्री बनेंगे जबकि सवर्णों के लड़के खूब पढ़ लिखकर भी बेरोजगार ही रहेंगे । रामधन भाँप गया है यह, इसलिए वह जगा रहा है अपने लोगों को। अकेले में हरिजनों को समझाता है कि "तुम लोग उल्लू हो जो जूता चाटि रहा हो ठाकुर बाम्भन कऽ। गँवार कऽ गँवार ही रहबौ। अब तक तो हरवाही चरवाही किहो अबतो आजादी आ गई है देश में लोकतंत्र है, तनिको पढ़ लिखि लेबो तबौ ठाकुर बाम्भन से आगे निकल जाबो। लेकिन तुम्हार सब का कुछ न होई। कितनी बार कहा कि चलौ रैली मा, नेता जी से मिलाई देई लेकिन तुम सब तो मनबै नहीं करतो। देखो अपन पार्टी का सरकार बने तो कानूनौ अपने पच्छ में रहे। तुम लोग तो वोटै देइ नहीं जातो। ठाकुरै लोग वोट डालि के आवथैं औ उनके सरकार तो हम लोगन का दब उबै करी। अबकी बार सांसदी का चुनावा आवा है जमिके ओट डालो, आपन सांसद चुनौ, तबहीं भला होई।"
सुक्खू बोला-"लेकिन रामधन बच्चा! हमार वोट तो पहिलवै पड़ जात है तऽ का जावा जाइ! ठाकुर बाम्भन का राज तो जुगन से चला आइ बा उम्मै नई बात कौन बा!"
"उम्मैं नई बात ई बा काका कि हम सबके लिए मौका एहि राज में आइ गा बा पहिले रहा राजतँत्र औ जमींदारी अब तो लोकतंत्र बा। मौका कऽ फायदा उठावा। अबकी बार चाहे खून-कत्तल होई जाय मुला ओट तो हम सब्बै देब। नेता जी कहे हैं कि सब देख लेंगे ।" रामधन ने जोर दे कर कहा।
इस बार के संसदीय चुनाव में गाँव का माहौल बिलकुल बदला सा नजर आ रहा है। चमारोँ की जागरुकता ने सबके कान खड़े कर दिए हालाँकि ठाकुरों को भरोसा पूरा था कि चलेगी उन्हीँकी पर ब्राह्मणों पर भरोसा नहीं था उन्हें, पिछली प्रधानी के चुनाव में ब्राह्मण गद्दारी कर गये, अपने ठाकुरों को धोखा देकर बगल के टोले से खड़े प्रधान का पक्ष ले लिया। खैर चुनाव हुआ। हरिजनों की और कुछ और दलितों की शिकायत रही कि इस बार भी उन्हें वोट नहीं डालने दिया गया। सुनाई पड़ा कि रामधन अपने दाँत पीस रहा है। बाबा अम्बेडकर की कोशिश बेकार गई आज भी उन्हीं लोगों की ही चलती है। लेकिन कुछ न कुछ तो करना होगा। राजधानी जाकर नेताजी को बताना है यहाँ का हालात। रामधन की बातें बार बार सुनकर हरिजन टोले के बच्चों में भी जोश आ गया। अब सब कह रहे हैं कि ठाकुरों ब्राह्मणों के यहाँ कोई काम करने नहीं जायेगा। बूढ़े लोगों को कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि अब क्या हो रहा है जिन्दगी जिनकी सेवा में निकल गयी अब उनसे बगावत। खैर चुनाव के अगले दिन शाम को अपने नये जोश में तालाब के पास रहने वाले हरिजनों के लड़कों ने अंकित सिंह पर लाठी से वार कर ही दिया। जिसकी चर्चा आपसे पहिले ही हो चुकी है।
(बाकी अगले भाग में )